महाराणा प्रताप के वंशजों का डेरा हिमायतनगर (वाढोणा) शहर में

आग में तपाकर लोहे की वस्तुएं बनाते हैं

हिमायतनगर/संवाददाता (अनिल मादसवार) आग में तपे हुए लोहे पर लोहे के हातोडे से वार कर लोहे को पिघलाना हमारा खंडणी पेशा है। खून पसीने कि मेहनत खाते है, किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते। देशके विभिन्न मंचसे खडे होकर राजनैतिक दल के लोग महाराणा प्रताप जैसे व्यक्तित्व के होणे कि बात बडी होशियारी से दोहरातें है। लेकिन गरिबी में जीवनयापन करणेवाले महाराणा प्रताप के वंशजो कि खातीर योजना का लाभ देणे के मामले में सरकार पीछे है। विगत कई सालो से आज भी हम अपनी परंपराओं का पूरी निष्ठा से पालन करते आ रहे हैं। कारणवष हमें घुमंतू ही बनकर जीवन व्यतीत करना पडता हैं। हमारी सुध लेकर मुख्य धारा में लानेवाला कोई भी नहीं है। ऐसा आरोप सुरज राठौड नामक महिला ने लगाया है।



महाराणा प्रताप के वंशज जो आज लोहार काम करने के लिए विवश हैं। विगत दो दिनो से इन लोगो ने अपना डेरा हिमायतनगर शहर के हुतात्मा कॉलेज के बगल में डालकर लोहे को पिघलाकर सामग्री बनाकर बेच रहे हैं। इनके द्वारा बनाई हुई वास्तूओ को देखने के लिए लोग दूर दूर से लोंग आ रहे हैं एवं उनके द्वारा बनी कार्य कौशल को देखकर आवश्यक सामान कि खरीददारी करते दिखाई देते हैं। घुमंतू का किरदार निभाने वाला बागडिया समाज अपनी परंपरा को निभाने में थोड़ा सा भी नहीं हिचकता। इस दौरान डेरे पे चलते कामकाज को देखणे हमारे संवाददाता पहूंचे। यहा पर छोटे बालक भी गरम लोहे पर हातोडे से घावं करता चित्र देखणे को मिला।  दौरान बातचीत करते  बहन सुरज राठौड ने कहां, कि वह महाराणा प्रताप कि वंशज हैं और मूलरूप से चितौड़ के रहने वाले हैं। उन्होंने बताया कि मुगल बादशाह अकबर से महाराणा प्रताप ने पहला युद्ध तो जीत लिया, लेकिन दोबारा मुगल बादशाह अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर महाराणा प्रताप को जंगल में शरण लेने पर मजबूर कर दिया। इससे दुखी उनके वंशजों ने कसम ली कि जब उनका राजा ही चितौड़ छोड़ कर चला गया है तो वह भी यहां नहीं रहेंगे। तभी से हमारे समाज के परिवार देश के विभिन्न हिस्सों में बैलगाडी में घूमकर जीवनयापन करते हैं। ८ से १५ दिनो तक एक गांव में डेरा लगाने के बाद दुसरे गांव-गांव जाकर अपना डेरा डालते हैं, और वहां आग में तपाकर लोहे की वस्तुएं बनाते हैं, हमारे द्वारा बनाई गई तरह-तरह की वस्तुओ कि बिक्री से हुई कमाई से अपने परिवार का पेट पालते हैं।

आज उन्होने कहां कि, मूल हमारा निवास दसणावाल, जी.खरगोण, मध्यप्रदेश व परिसर का है, हमें घर, मकान नहीं होणे से विगत कुछ साल से हम कई जिले में डेरे लगाकर... नांदेड जिले में दाखील हुए है। हर गांव - शहर में डेरे लगाकर लोहे के वस्तूये बनते पेट पाल रहे है, इसीलिये जडतात लोंग हमें आज लोहार समझते है, किंतु इस दौरान हमें कोई भी सहुलीयत नहीं मिलती। कारणवष हमें असुविधाओ का सामना करते हुए, जीवनयापन करना पडता है। इस काम में हमारे बालक भी हात बटाते है। हमारी समाज के सभी लोग आज भी महाराणा प्रताप ने सिखाये हुए स्वाभिमान कि रक्षा करते खून - पसीने कि मेहनत कि कमाई से जीवनयापण करते हैं। किसी के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाते, राजनैतिक दल के नेतागण हमारे महाराणा प्रतापसिंह के नाम का उपयोग करते हैं। किंतु हमारे समाज के लोंगो को मुख्य धारा में लाने के लिये कोई भी आगे नही आता। इसी कारण आज हमारे नौनिहाल बालक शिक्षा कि प्रवाह से कोसो दूर हैं। इसलिये सरकार ने घुमंतू बनकर जीवन यापन करणेवाले हमारे समाज को मुख्य धारा से जोड़कर शिक्षा के साथ विभिन्न योजना का लाभ देणे कि मांग भी कि, इस वक्त उनके साथ डेरे के प्रमुख भगवान चव्हाण, अरुण चव्हाण, अजय सोलंकी, लखन चव्हाण, चुनीलाल चव्हाण, महिला परिवार व नौनिहाल बालक भी उपस्थित थे।

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